Tuesday, July 07, 2009

इब्ने मरियम हुआ करे कोई,
मेरे
दुःख की दवा करे कोई.

बक्
रहा हूँ जुनून में क्या क्या कुछ

कुछ न समझे खुदा करे कोई

— Mirza Ghalib


मरिअम का वो पाक़ बेटा ईसा मसीहा पहले था, बेटा बाद में। लेकिन, वोह भगवानों की बात है। हम इन्सान हैं, मसीहे नही। ईसा की मौत भी एक अजूबा थी। हम इन्सान वैसे नही हैं।
मौत हमारे लिए एक अंत ही नही, शुरुआत भी है। मगर शुरू कोई तब करे जब हमे अंत का एहसास हुआ हो। बदन से जब वोह आखरी साँस निकल जाती है, फिर भी हम उस क्षण को अंत नही मानते। अंत तब तक नही जब तक वो हर एक पल, हर एक बात, जो हम यादों की तरह संभाल कर रखते हैं, मिट नही जाते, या और किसी यादों के बीच कहीं खो नही जाते।

लेकिन मैं उन यादों को कैसे खो दूँ, जो की मेरे वजूद का एक हिस्सा है? मेरे होने की एक वजह हैं? वो यादें जो की उस एक इन्सान को मुझ में ज़िन्दा रखती हैं, जिसकी वजह से आज मैं हूँ। मेरा अस्तित्व है। लोग समझते हैं की दर्द को नज़रंदाज़ करना उसके न होने के बराबर है। मेरा दर्द नज़रान्दाज़ करने की वजह आज से एक नासूर बन गया है। उस दर्द को कैसे भुला दूँ, जो मुझे हर वक़्त यह याद रखने पर मजबूर करता है, की हाँ, जो चला गया वोह वाकई चला गया। उसके लौटने की उम्मीद नही है। राह देखना फिज़ूल है। मगर इस दिल को कौन समझाए? आज भी इस आस में जीता है की इस बुरे सपने से मैं जल्द ही जागूंगी। जल्द ही सब कुछ वैसा होगा जैसा पहले था। जब हम ख़ुश थे, जब हम सब थे। जब एक की कमी नही थी। जब एक की कमी खलती नही थी। जब एक सूरज था, और इस दर्द की सर्दी की धुंद नही थी।

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